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महत्वपूर्ण हैं स्वनिर्मित औषधि- प्रो॰आनन्द चौधरी 

स्वनिर्मित शास्त्रोक्त औषधियों का प्रयोग चिकित्सक के आत्म विश्वास में वृद्धि करता है।-प्रो॰ आनन्द चौधरी

स्वनिर्मित औषधि विशेष कर के रस रसायन के निर्माण में शोधन, मारण आदि प्रक्रियाएँ महत्वपूर्ण होती है। अगर किसी रस रसायन का निर्माण चिकित्सक अपने चिकित्सालय पर स्वयं की देख रेख में करता है तो उसे परिणाम अच्छे मिलते है क्योकि औषधि के घटको के चयन से लेकर निर्माण की पूरी प्रक्रिया चिकित्सक की देख रेख में होती है। जिससे उसे अपनी औषधि के बारे में पूरा विश्वास होता है कि उसे सही घटकों के साथ सही प्रक्रिया का पालन कर के बनाया गया है। स्वनिर्मित औषधि का प्रयोग रोगी और चिकित्सक दोनो के लिए अच्छा रहता है ।

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ये विचार आयुर्वेद संकाय काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी के रस शास्त्र एवं भैषज्य कल्पना विभाग के विभागाध्यक्ष  प्रोफ़ेसर आनन्द  चौधरी जी ने विश्व आयुर्वेद परिषद उत्तर प्रदेश के विद्यार्थी प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित वेब आधारित सेमिनार में रखे। विश्व मंगल दिवस के अवसर पर विश्व आयुर्वेद परिषद ने अपनी लेक्चर शृंखला का आरम्भ “योग्या 2023” के नाम से किया है। इस शृंखला के अंतर्गत प्रत्येक मास एक विशेष विषय पर सेमिनार का आयोजन वर्चुअल रूप से किया जाएगा। इस सेमिनार में विभिन्न विषयों पर देश के वरिष्ठ विद्वानो का मार्गदर्शन श्रोताओं को मिलेगा।इस शृंखला के पहले सेमिनार में स्वनिर्मित औषधि [1]के महत्व पर चर्चा की गयी।

क्यों आवश्यक हैं स्वनिर्मित औषधि

वर्तमान समय में आयुर्वेद के बढ़ते प्रचार प्रसार को देखते हुए एक चिकित्सक के लिए अपनी औषधि का निर्माण शास्त्रोक्त विधि से करना सफलता की सम्भावनाओं को कई गुना बढ़ा  देता है। यह चिकित्सक और रोगी दोनो के लिए लाभदायक है। ये विचार प्रोफ़ेसर आनन्द चौधरी जी ने विश्व आयुर्वेद परिषद उत्तर प्रदेश के विद्यार्थी प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित वेब आधारित सेमिनार में रखे। विश्व मंगल दिवस के अवसर पर विश्व आयुर्वेद परिषद ने अपनी लेक्चर शृंखला का आरम्भ “योग्या 2023” के नाम से किया है। इस शृंखला के अंतर्गत प्रत्येक मास एक विशेष विषय पर सेमिनार का आयोजन वर्चुअल रूप से किया जाएगा। इस सेमिनार में विभिन्न विषयों पर देश के वरिष्ठ विद्वानो का मार्गदर्शन श्रोताओं को मिलेगा। 

विश्व आयुर्वेद परिषद क्या है?

विश्व आयुर्वेद परिषद वर्ष १९९७ से निरंतर आयुर्वेद के द्वारा जन सामान्य के स्वास्थ्य रक्षण का लक्ष्य ले कर कार्य कार्य करने वाली अखिल भारतीय स्वरूप की संस्था है। मकर संक्रांति पर्व को परिषद प्रत्येक वर्ष विश्व मंगल दिवस के रूप में  पूर्ण उत्साह के साथ मनाता है। उत्तर प्रदेश में परिषद की विभिन्न शाखाओं द्वारा विविध प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए गए। इन कार्यक्रमों में यज्ञ, जनजागरण शिविर, स्वास्थ्य परीक्षण शिविर आदि कार्यक्रम विशेष उल्लेखनीय हैं। इस अवसर पर एक विशेष पत्रक भी वितरित किया गया। इस पत्रक में  स्वास्थ्य रक्षण एवं आहार विहार आदि की जानकारी संकलित की गयी थी।विश्व आयुर्वेद परिषद के देश भर में 10,000 से अधिक सदस्य हैं। देश भर में आयुर्वेद के क्षेत्र में कार्य करने वाली अग्रणी संस्था के रूप में परिषद निरंतर समाज एवं चिकित्सकों के बीच में सक्रिय है। परिषद का मुख्य कार्य क्षेत्र आयुर्वेद के चिकित्सक, विद्यार्थी, एवं सामान्य जन मानस है। समय समय पर परिषद सेमिनार, कार्यशाला एवं गोष्ठियों का आयोजन विद्यार्थियों एवं चिकित्सकों के लिए करता रहता है।

इसी क्रम में उद्घाटन सेमिनार का आयोजन 17 जनवरी को सायं 6:00 बजे किया गया जिसका विषय सफल चिकित्सा हेतु स्वनिर्मित रस रसायनों का महत्वथा । सेमिनार में मुख्य वक्ता आयुर्वेद संकाय काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी के रस शास्त्र एवं भैषज्य कल्पना विभाग के विभागाध्यक्ष  प्रोफ़ेसर आनन्द  चौधरी जी थे एवं अध्यक्षता विश्व आयुर्वेद परिषद के राष्ट्रीय संगठन सचिव प्रोफ़ेसर योगेश चंद्र मिश्रा जी ने की। कार्यक्रम का आरम्भ धन्वन्तरि वंदना से किया गया। इसके बाद वक्ता का स्वागत विश्व आयुर्वेद परिषद के  राष्ट्रीय सचिव डा सुरेंद्र चौधरी जी द्वारा किया गया। वक्ता परिचय विद्यार्थी प्रकोष्ठ उत्तर प्रदेश के प्रदेश प्राभारी डा मंदीप जैसवाल जी द्वारा कराया गया।

शास्त्रीय और युगानुरूप आयुर्वेद

अपने उद्बोधन में प्रोफ़ेसर आनन्द चौधरी जी ने वर्तमान समय में स्वनिर्मित औषधियों की गुणवत्ता से लेकर उनकी विभिन्न प्रकार खूबियों पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि आज हमारा उद्देश्य आयुर्वेद को स्थानीय स्तर से आरम्भ कर वैश्विक  स्तर पर ले जाना है। आज आयुर्वेद को मुख्य रूप से दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है शास्त्रीय आयुर्वेद एवं युगानुरूप आयुर्वेद या अर्वाचीन आयुर्वेद। शास्त्रीय आयुर्वेद आयुर्वेद की आर्ष परम्परा के साथ जुड़ कर रोग और रोगी की चिंता करता है। अर्वाचीन आयुर्वेद, आयुर्वेद के वैश्विक महत्व के प्रतिपादन की अवधारणा ले कर चलता है जिसमें कोसमेटोलोज़ी, आयुर्वेदिक आहार और सप्लीमेंट, न्यूट्रास्यूटिकल सभी पक्ष समाहित होते  है।  देखा जाए तो इसकी शुरुआत महामना मदन मोहन मालवीय जी के उस दृष्टिकोण से हुई थी जिसकी वजह से आयुर्वेद का अध्ययन काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आरम्भ हुआ था। उनका मत था की देश के ग्रामीण क्षेत्रों की स्वास्थ्य व्यवस्था प्रत्येक ग्राम में बसने वाले आयुर्वेद के विशारद वैद्य के हाथ में है। आवश्यकता है उन्हें युगानुरूप परिष्कृत कर और ज़्यादा उपयोगी बनाने की। इसी दृष्टिकोण को आगे बढ़ाते हुए वर्तमान व्यवस्था आयुर्वेद के वैश्विक स्वरूप को रेखांकित करने में जुटी हुई है। लेकिन ऐसा करते समय हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए की हाईटेक होने की आवश्यकता केवल आयुर्वेद के चिकित्सालयों और औषधि निर्माताओं को ही है ना कि आयुर्वेद की मूल चिकित्सा पद्धति को। क्योंकि उसकी प्रासंगिकता उसके मूल सिद्धांतों में है जो उसे विशेष बनाते है।

बाज़ार में उपलब्ध रस रसायनों से स्वनिर्मित रसौषधिया कैसे बेहतर है?

जिस प्रकार से आयुर्वेद के बजट में निरंतर वृद्धि हो रही है उसी प्रकार से चुनौतियाँ और ज़िम्मेदारियाँ भी बढ़  रही है। अगर एक चिकित्सक की दृष्टि से देखा जाए तो उसका उद्देश्य अपने रोगी को श्रेष्ठ चिकित्सा उपलब्ध करना है। उसका रोगी उसकी रेटिंग एजेंसी है। अगर रोगी संतुष्ट है तो चिकित्सक सफल है। इस कार्य में औषधि का महत्वपूर्ण स्थान है। चिकित्सालय स्तर पर जब बात की जाती है तो वानस्पतिक औषधियों में स्वरस, क्वाथ और चूर्ण ऐसी कल्पनाएँ है जिनके द्वारा कम संसाधनो में अधिक सफलता प्राप्त की जा सकती है क्योकी इनका  निर्माण आसानी से कम समय में चिकित्सालय स्तर पर किया जा सकता है। रस रसायनों के लिए यह बात और  ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाती। अगर किसी रस रसायन का निर्माण चिकित्सक अपने चिकित्सालय पर स्वयं की देख रेख में करता है तो उसे परिणाम अच्छे मिलते है क्योकि औषधि के घटको के चयन से लेकर निर्माण की पूरी प्रक्रिया चिकित्सक की देख रेख में होती है। जिससे उसे अपनी औषधि के बारे में पूरा विश्वास होता है कि उसे सही घटकों के साथ सही  प्रक्रिया का पालन कर के बनाया गया है।यहाँ यह स्पष्ट कर देना सही रहेगा की स्वनिर्मित का अभिप्राय है स्वयं के संसाधनों से स्वयं के सहयोगियों की मदद से बनायी गयी औषधि को स्वनिर्मित माना जा सकता है।

स्वनिर्मित औषधि का प्रयोग नहीं करने के क्या हो सकते हैं नुक़सान?

औषधि विशेष कर के रस रसायन के निर्माण में शोधन, मारण आदि प्रक्रियाएँ महत्वपूर्ण होती है। बड़े स्तर पर औषधि निर्माण करते समय अनेक कारणों से इन प्रक्रियाओं का पालन कई बार शास्त्रोक्त विधि से नहीं हो पाता है जिसके कारण चिकित्सक को अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाते। इससे बचने के लिए यथा सम्भव अपने चिकित्सालय प्रयोग के लिए औषधियों का निर्माण स्वयं करने का प्रयास करना चाहिए। यह रोगी और चिकित्सक दोनो के लिए अच्छा रहेगा।

कार्यक्रम में धन्यवाद ज्ञापन विश्व आयुर्वेद परिषद उत्तर प्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष डा॰ विजय राय जी ने किया। सेमिनार का संचालन विश्व आयुर्वेद परिषद उत्तर प्रदेश के प्रदेश महासचिव वैद्य चन्द्र चूड़ मिश्र ने किया।

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