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Sushrut Samhita Uttar Tantra Chapter-7

सुश्रुत संहिता उत्तर तंत्र अध्याय -7(Sushrut Samhita Uttar Tantra Chapter-7)

सुश्रुत संहिता उत्तर तंत्र अध्याय -7 (Sushrut Samhita Uttar Tantra Chapter-7) का मुख्य विषय [1] नेत्र रोग है।इस अध्याय में दृष्टि के विभिन्न पटलों  और उनमें होने वाले रोगों का वर्णन मिलता है।

दृष्टि का वर्णन (Sushrut Samhita Uttar Tantra Chapter-7)

  • मसूर दाल के समान

  • पंच भौतिक

  • खद्योत विस्फुल्लिंग आभा

  • र्बाह्येन विवराकृतिम्

  • शीत सात्मया

प्रथमे पटले दोष:-(Sushrut Samhita Uttar Tantra Chapter-7)

  • अव्यक्तानि स रूपाणि सर्वाण्येव प्रपश्यति

द्वितीयं पटलं गते (Sushrut Samhita Uttar Tantra Chapter-7)

  • दृष्टिर्भृशं विह्वलति

  • मक्षिका मशकान् केशाञ्जालकानि च पश्यति

  • मण्डलानि पताकांश्च मरीचीः कुण्डलानि च

  • मिथ्या पदार्थ दिखना

  • सुई कि छिद्र ना दिखना

तृतीय पटल गत-

  • ऊपर स्थित वस्तु देख सकता है, नीचे की नहीं

  • कर्ण नासा युक्त को इनसे विहीन देखता है

  • दोष अधोभाग मे रहे तो नज़दीक का नहीं दिखता है, मध्य में होने पर एक के दो देखता है

  • चतुर्थ पटल गत- दृष्टि का पूर्ण अवरोध

  • श्लेश्मिक तिमिर का रोगी सभी पदार्थों को जल में डूबा हुआ सा देखता है

  • पित्तज परिमलायी के रोगी के दृष्टि मोटे काच के समान और अग्नि के समान होती है

  • पित्त विदग्ध दृष्टि के रोगी को दिन में नहीं दिखता लेकिन रात में दिखता है

मूल श्लोक

विद्यार्थियों की सुविधा के लिए इस अध्याय के मूल श्लोक का पाठ नीचे दिया जा रहा है।

अथातो दृष्टिगतरोगविज्ञानीयमध्यायं व्याख्यास्यामः ||१||

यथोवाच भगवान् धन्वन्तरिः ||२||

मसूरदलमात्रां तु पञ्चभूतप्रसादजाम् |

खद्योतविस्फुलिङ्गाभामिद्धां [१] तेजोभिरव्ययैः ||३||

आवृतां पटलेनाक्ष्णोर्बाह्येन विवराकृतिम् |

शीतसात्म्यां नृणां दृष्टिमाहुर्नयनचिन्तकाः ||४|| रोगांस्तदाश्रयान् घोरान् षट् च षट् च प्रचक्ष्महे |

पटलानुप्रविष्टस्य तिमिरस्य च लक्षणम् ||५||

सिराभिरभिसम्प्राप्य विगुऽभ्यन्तरे भृशम् |

प्रथमे पटले दोषो यस्य दृष्टौ व्यवस्थितः ||६||

अव्यक्तानि स रूपाणि सर्वाण्येव प्रपश्यति |७|

सिराभिरभिसम्प्राप्य विगुऽभ्यन्तरे भृशम् |

प्रथमे पटले दोषो यस्य दृष्टौ व्यवस्थितः ||६||

अव्यक्तानि स रूपाणि सर्वाण्येव प्रपश्यति |७|

दृष्टिर्भृशं विह्वलति द्वितीयं पटलं गते ||७||

मक्षिका मशकान् केशाञ्जालकानि च पश्यति |

मण्डलानि पताकांश्च मरीचीः कुण्डलानि च ||८||

परिप्लवांश्च [१] विविधान् वर्षमभ्रं तमांसि च |

दूरस्थान्यपि रूपाणि मन्यते च समीपतः ||९||

समीपस्थानि दूरे च दृष्टेर्गोचरविभ्रमात् |

यत्नवानपि चात्यर्थं सूचीपाशं न पश्यति ||१०||

ऊर्ध्वं पश्यति नाधस्तात्तृतीयं पटलं गते |

महान्त्यपि च रूपाणि च्छादितानीव वाससा ||११||

कर्णनासाक्षियुक्तानि विपरीतानि वीक्षते [१] |

यथादोषं च रज्येत दृष्टिर्दोषे बलीयसि ||१२||

अधःस्थिते समीपस्थं दूरस्थं चोपरिस्थिते |

पार्श्वस्थिते तथा दोषे पार्श्वस्थानि न पश्यति ||१३||

समन्ततः स्थिते दोषे सङ्कुलानीव [२] पश्यति |

दृष्टिमध्यगते दोषे स एकं मन्यते द्विधा ||१४||

द्विधास्थिते त्रिधा पश्येद्बहुधा चानवस्थिते |

तिमिराख्यः स वै दोषः… |१५|

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